आजादी के सात दशकों बाद भी बुनियादी सुविधाओं से महरूम है ग्राम कैमा
अनिल कुमार श्रीवास्तव
सीतापुर।सुविचारों को अगर अमलीजामा पहना दिया जाय तो निश्चय ही तरक्की और खुशहाली में कोई बाधा नही आएगी।संस्कार और संस्कृति की धरोहरों के रक्षक ग्रामीण व किसानों की दशा पर तमाम भावनात्मक विचार उमड़ते जरूर हैं लेकिन वह सिर्फ सार्वजनिक मंचो पर वक्तव्य बन कर रह जाते हैं शायद जमीन पर उन्हें उतारने का प्रयास ही नही किया जाता जिम्मेदार लोगों द्वारा।
आभासी दुनिया मे सक्रिय राष्ट्र चिंतक किसानों की बदहाली पर आंसू बहाते हुए सार्वजनिक रूप से गला फाड़ फाड़ कर यह कहते देखे जा सकते हैं कि "देश की समृद्धि का रास्ता गांवों से होकर गुजरता है" लेकिन उत्तर प्रदेश की राजधानी से सटे जिला सीतापुर के एक गांव कैमा को देखकर लगता है यह सुविचार ऐसे ही हैं जैसे कि एसी में बैठकर अनाज के मूल्यों का निर्धारण किया जाता है और किसानों की चिंता कर उनकी बेवसी पर आंसू बहाए जा रहे हों।
आजादी के सात दशकों बाद भी लखनऊ-दिल्ली राष्ट्रीय राजमार्ग से कुछ किलोमीटर दूर सीतापुर जिले के मछरेहटा ब्लॉक का यह कैमा गांव आज भी अपनी बदहाली पर आंसू बहा रहा है।जहां एक तरफ आधुनिकता की अंधाधुंध दौड़ में शामिल देश के तमाम शहर, गांव तरक्की की नई से नई इबारत लिख रहे हैं वही यह किसानों का यह गांव कैमा बुनियादी जरूरतों से महरूम होकर मदद की बाट जोह रहा है।
तमाम प्रयासों के बाद गांव में दो वर्ष पूर्व बिजली तो पहुंच गई थी लेकिन उसकी आवाजाही बरकरार है।इसके बावजूद यहां के किसान सुविधाओं के अभाव में विषम परिस्थितियों में भी अपने कर्तव्य पथ पर डटे हुए हैं।कोरोनाकाल में तपती गर्मी में लॉक डाउन का पालन कर रहे इन किसानों के चेहरे दे रहे हैं बस यही ज्ञान, दुखो को भेद सकता है मुस्कान का वान।और यह नित अपने कर्मपथ पर पसीना बहा रहे हैं ताकि देशवासियों को सुकून मिल सके।इस गांव में पहुंचने का आलम यह है कि कोई पक्का रास्ता न होने की वजह से खेतों की पगडंडियों व मेढ़ों के टेढ़े मेढ़े व उबड़ खाबड़ रास्तो से गुजरना पड़ता है।
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